आठ वर्ष की मनु ब्याह कर लक्ष्मीबाई बन झांसी आई| मणिकर्णिका घाट पर जन्मी उच्चकुल ब्राह्मण दंपत्ति के यहॉं| पिता को बिठूर में पेशवा के यहॉं उच्च पद पर रक्खा गया| मनु पेशवा के बच्चों के साथ खेलती ‘‘बरछी ढाल, कृपाण कटारी, उसकी यही सहेली थी, नकली युद्ध सैन्य घेरना दुर्ग तोड़ना, ये थे उसके प्रिय खिलवाड़’’| आठ वर्ष की मनु चल दी ससुराल, पति मध्यवय था – तो क्या? वो तो अपने स्त्री धर्म से जुड़ी झांसी की हो गई| कौन नहीं जानता उस बाईस वर्ष की वीरांगना को!
मुझे आश्चर्य है कि हम जैसी पढ़ी लिखि स्त्रियॉं पूर्ण समर्पण नहीं कर पाती, और आजन्म क्षोभ में जीती हैं|
आज उसकी वीरता की गाथा भारतीय इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखी गई है| अपने देश में ऐसी ही मूक वीरांगनाएं हैं, जिन्होंने अपना धर्म समझ कर, अपनी झोपड़ी को ही झांसी समझ कर उसके प्रति समर्पित हो गई| (मुझे आश्चर्य है कि हम जैसी पढ़ी लिखि स्त्रियॉं पूर्ण समर्पण नहीं कर पाती, और आजन्म क्षोभ में जीती हैं|) एक दिन साढ़े चार फुटिया दुबली-पतली स्त्री, गोद में बच्चा लिये मिलने आई| मैंने उसके बारे में सुन रखा था| गांव में ननद का विवाह था, बरात द्वार पर आ गई और लड़के वाले अड़ गये कि सोने की कंठी पहिनाइये! गरीब घर में हाथों हाथ कहॉं से आये कंठी! आगे ही काफी कर्जा सिर पर चढ़ा था|
भाभी ने जब सब सुना, तो अपने मैके से लाई हुई एक मात्र कंठी निकाल कर अपने पति को देदी| शादी हो गई| मुझे सुन कर हर्ष मिश्रित दु:ख हुआ और उसके लिये नई कंठी बनवाने का पैसा दे दिया| मैंने अपनी बेटी को थोड़ गर्व मिश्रित अंदाज में बात बताई, तो वह बोली, मां, तुमने तो अपनी कई कंठियों में से एक दी! उस वीरांगना को देखो, जिसने अपना सब कुछ दे दिया| मेरा मन उसके प्रति श्रद्धा से भर गया और यह क्या, उसने वो रुपये लिये ही नहीं-बाकी का कर्जा उतारने के लिये ससुर को वापस दे दिया| धन्य हो तुम बबीता!
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